झूठ का पाश
खुद को,झूठ के एक लौह जाल में घेर लिया तुमने
झूठ का ये लिहाफ़,क्यों ओढ़ लिया तुमने,
ये भी झूठ और वो भी झूठ,
हर वचन पर,सच जाये टूट,
हर मोङ पर तुम्हारे बोल,
सिखा जाती है ये अनमोल,
कि किसी के कहे पर ना करो विश्वास,
किसी से ना बांधो इतनी आस
कि दिल को पहुँचे भारी आघात;
और झूठी लगने लगे अपनी ही बात।
वो कसमें, वो वादे सभी झूठे,
जिनके पीछे, सब अपने मेरे छूटे,
झूठे तुम्हारे रिश्ते नाते,
हर एक तुम्हारी सच्चाई बता जाते,
क्यों तुम्हारी नज़रें हर झूठ को ना कर पाईं बयां,
क्यों कर गईं वो,यूँ मुझसे दग़ा,
क्यों नही वो बता पाईं तुम्हारा सच,
तुम्हारे हर झूठ में गयी वो रच,
मेरा सच भी रूठ गया है मुझसे आज,
तुम्हारे झूठ के भंवर में फंस,जो मैने सुनी ना उसकी आवाज़।
फंसकर रह गयी मैं झूठ के इस सुदृढ़ पाश में,
तुमपर करती रही भरोसा,सच्ची आस में,
पर हर कदम पर डाला तुमने झूठ का जाल,
मैं कमबख्त फंसती गयी इसमें,तुम्हारे इश्क में बेहाल,
हर झूठ तुम्हारा दे जाता गहरा एक चोट,
तुम उसे भी बना देते,मेरी सोच का खोट,
कितना तुम्हे बदलने की,करी कोशिश मैंने,
तुमको सच्चा जानने की थी बस ख्वाहिश मन में,
पर झूठ ने तो सोच को भी तुम्हारी, मैला कर दिया था,
रगों में जो दौङती थी तुम्हारे,उस खूं को भी मटमैला कर दिया था।
ना जाने,ऐसी ही एक झूठ बनकर रह गयी मै कब,
जब सब झुठलाने लगे,ये जाना मैंने तब,
तुम्हारे झूठ के साये में अब मै भी झूठी कहलाती हूँ,
तुमपर किये भरोसे पर अब,खुद ही खुद से झुंझलाती हूँ,
चल रहा है अंतर्मन में झूठ और सच का घमासान,
मै और मेरा वजूद भी झूठा,शायद मेरे दिल ने भी लिया है मान,
शायद तुम्हारे झूठ ने विजय पायी,हार मान ली है सच ने,
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को ही झुठला दिया तुमने,
मेरे सच की दुनिया में,कर दिया मुझे मूक, पूर्णतया मौन,
पशोपेश में हूँ,कि आख़िर सच्चा कौन और झूठा कौन !!!
-मधुमिता
खुद को,झूठ के एक लौह जाल में घेर लिया तुमने
झूठ का ये लिहाफ़,क्यों ओढ़ लिया तुमने,
ये भी झूठ और वो भी झूठ,
हर वचन पर,सच जाये टूट,
हर मोङ पर तुम्हारे बोल,
सिखा जाती है ये अनमोल,
कि किसी के कहे पर ना करो विश्वास,
किसी से ना बांधो इतनी आस
कि दिल को पहुँचे भारी आघात;
और झूठी लगने लगे अपनी ही बात।
वो कसमें, वो वादे सभी झूठे,
जिनके पीछे, सब अपने मेरे छूटे,
झूठे तुम्हारे रिश्ते नाते,
हर एक तुम्हारी सच्चाई बता जाते,
क्यों तुम्हारी नज़रें हर झूठ को ना कर पाईं बयां,
क्यों कर गईं वो,यूँ मुझसे दग़ा,
क्यों नही वो बता पाईं तुम्हारा सच,
तुम्हारे हर झूठ में गयी वो रच,
मेरा सच भी रूठ गया है मुझसे आज,
तुम्हारे झूठ के भंवर में फंस,जो मैने सुनी ना उसकी आवाज़।
फंसकर रह गयी मैं झूठ के इस सुदृढ़ पाश में,
तुमपर करती रही भरोसा,सच्ची आस में,
पर हर कदम पर डाला तुमने झूठ का जाल,
मैं कमबख्त फंसती गयी इसमें,तुम्हारे इश्क में बेहाल,
हर झूठ तुम्हारा दे जाता गहरा एक चोट,
तुम उसे भी बना देते,मेरी सोच का खोट,
कितना तुम्हे बदलने की,करी कोशिश मैंने,
तुमको सच्चा जानने की थी बस ख्वाहिश मन में,
पर झूठ ने तो सोच को भी तुम्हारी, मैला कर दिया था,
रगों में जो दौङती थी तुम्हारे,उस खूं को भी मटमैला कर दिया था।
ना जाने,ऐसी ही एक झूठ बनकर रह गयी मै कब,
जब सब झुठलाने लगे,ये जाना मैंने तब,
तुम्हारे झूठ के साये में अब मै भी झूठी कहलाती हूँ,
तुमपर किये भरोसे पर अब,खुद ही खुद से झुंझलाती हूँ,
चल रहा है अंतर्मन में झूठ और सच का घमासान,
मै और मेरा वजूद भी झूठा,शायद मेरे दिल ने भी लिया है मान,
शायद तुम्हारे झूठ ने विजय पायी,हार मान ली है सच ने,
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को ही झुठला दिया तुमने,
मेरे सच की दुनिया में,कर दिया मुझे मूक, पूर्णतया मौन,
पशोपेश में हूँ,कि आख़िर सच्चा कौन और झूठा कौन !!!
-मधुमिता
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