बचपन
मासूम से,
थोड़े नटखट से,
चुलबुले,
सतरंगी से बुलबुले,
किलकारियाँ,
छोटी-छोटी शैतानियाँ,
बदमाशियाँ,
मनमानियाँ,
डाँट खाकर बेबस सा चेहरा बनाना,
कभी रोना,कभी मुस्कुराना।
परी कथायें,
वीर गाथाएं,
कभी किंवदंतियाँ,
कभी भूतों की कहानियाँ,
टी-सेट और गुङिया रानी,
हवाई जहाज़ और मोटर गाङी,
कागज़, पेन्सिल और ढेरों रंग,
खूब सारी किताबों का संग,
खेल, खिलौने, हँसी की किलकारी
बस यही थी जब दुनिया हमारी।
बचपन के दिन भी क्या खूब थे,
काम ना होते हुये भी हम सब मसरूफ़ थें,
पेङों पर चढ़ना,
चोरी से आम तोङना,
दुपहर को माँ संग लेटना
और उसकी आँख लगते ही, झट बाहर को दौङना,
खेल कूद और हल्ला गुल्ला,
बचपन की रौनक से रोशन था मुहल्ला,
टिप्पी टिप्पी टाॅप, स्टापू, छुपन छुपाई
और खो-खो ने जब थी नींदे चुराई।
आईस्क्रीम और कुल्फी,
दूध,मलाई, लस्सी,
जलेबी,पकौङे , समोसे,
जब थे मिनटों में चट कर जाते,
ना जलन, ना ऐसीडीटी का चक्कर,
जब नींद आती थी छककर,
जब पत्थर हजम कर जाते थें,
सारा दिन ना जाने कितनी कितनी दौङ लगाते थे,
ना कोई चिंता ना कोई फ़िकर,
नाना-नानी, दादा-दादी,के थे लख़्ते जिगर।
ना मारामारी,
ना लाचारी,
ना लङाई,
ना मार कुटाई,
ना ही कोई शिकायत,
ना दिल में कोई नफरत,
ना भेद किसी जात पात का,
ना कोई धर्म भेद, ना क्षेत्रवाद था,
कितने साफ दिल और नेक थे,
तब हम सब भी तो एक थे।
आज तो हर वक्त मारामारी है,
जीवन एक ज़िम्मेदारी है,
हँसना मुस्कुराना भूल चुके हैं,
दुनियादारी अब सीख चुके हैं,
हर ओर बस भागमभाग,
सीनों में लगी है आग,
अब कुछ भी ना हमारा है,
हर कुछ तेरा मेरा है,
रिश्तों में कितने भेद हैं अब,
दिलों में भी बस दूरियाँ हैं अब।
हर पल बस झूठी हँसी, झूठे मुस्कान,
बस शेखी और झूठी शान,
क्यों नही अब हम खिलखिलाते हैं?
क्यों एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं?
किस बात की हाय, तौबा और मारकाट ?
क्यों करते अब झगङे, जंगों की बात?
काश कभी ना बङे होते!
बच्चे बन बस नाचते,कूदते,
सारी दुनिया होती हमारा घर,
हर कोई अपना, ना कोई ग़ैर, ना पर।
एक बार जो फिर से हाथ आ जाये बचपन,
कभी ना छोङे फिर उसका दामन,
तितलियों जैसे उठते फिरेंगे,
पंछियों से चहकेंगे,
एक ही रंग और एक ही देश,
ना ही हिंसा, ना कोई द्वेष,
जैसे कोई प्यारा मेहमान,
बचपन एक मीठी मुस्कान,
ले आती है यादें ढेर,
करवा लाती है सुलझे हुये दिनों की सैर।
चलो समय का पहिया घुमा दें,
फिर से हम बच्चे बन जायें. ...
©मधुमिता
मासूम से,
थोड़े नटखट से,
चुलबुले,
सतरंगी से बुलबुले,
किलकारियाँ,
छोटी-छोटी शैतानियाँ,
बदमाशियाँ,
मनमानियाँ,
डाँट खाकर बेबस सा चेहरा बनाना,
कभी रोना,कभी मुस्कुराना।
परी कथायें,
वीर गाथाएं,
कभी किंवदंतियाँ,
कभी भूतों की कहानियाँ,
टी-सेट और गुङिया रानी,
हवाई जहाज़ और मोटर गाङी,
कागज़, पेन्सिल और ढेरों रंग,
खूब सारी किताबों का संग,
खेल, खिलौने, हँसी की किलकारी
बस यही थी जब दुनिया हमारी।
बचपन के दिन भी क्या खूब थे,
काम ना होते हुये भी हम सब मसरूफ़ थें,
पेङों पर चढ़ना,
चोरी से आम तोङना,
दुपहर को माँ संग लेटना
और उसकी आँख लगते ही, झट बाहर को दौङना,
खेल कूद और हल्ला गुल्ला,
बचपन की रौनक से रोशन था मुहल्ला,
टिप्पी टिप्पी टाॅप, स्टापू, छुपन छुपाई
और खो-खो ने जब थी नींदे चुराई।
आईस्क्रीम और कुल्फी,
दूध,मलाई, लस्सी,
जलेबी,पकौङे , समोसे,
जब थे मिनटों में चट कर जाते,
ना जलन, ना ऐसीडीटी का चक्कर,
जब नींद आती थी छककर,
जब पत्थर हजम कर जाते थें,
सारा दिन ना जाने कितनी कितनी दौङ लगाते थे,
ना कोई चिंता ना कोई फ़िकर,
नाना-नानी, दादा-दादी,के थे लख़्ते जिगर।
ना मारामारी,
ना लाचारी,
ना लङाई,
ना मार कुटाई,
ना ही कोई शिकायत,
ना दिल में कोई नफरत,
ना भेद किसी जात पात का,
ना कोई धर्म भेद, ना क्षेत्रवाद था,
कितने साफ दिल और नेक थे,
तब हम सब भी तो एक थे।
आज तो हर वक्त मारामारी है,
जीवन एक ज़िम्मेदारी है,
हँसना मुस्कुराना भूल चुके हैं,
दुनियादारी अब सीख चुके हैं,
हर ओर बस भागमभाग,
सीनों में लगी है आग,
अब कुछ भी ना हमारा है,
हर कुछ तेरा मेरा है,
रिश्तों में कितने भेद हैं अब,
दिलों में भी बस दूरियाँ हैं अब।
हर पल बस झूठी हँसी, झूठे मुस्कान,
बस शेखी और झूठी शान,
क्यों नही अब हम खिलखिलाते हैं?
क्यों एक दूसरे को नीचा दिखाते हैं?
किस बात की हाय, तौबा और मारकाट ?
क्यों करते अब झगङे, जंगों की बात?
काश कभी ना बङे होते!
बच्चे बन बस नाचते,कूदते,
सारी दुनिया होती हमारा घर,
हर कोई अपना, ना कोई ग़ैर, ना पर।
एक बार जो फिर से हाथ आ जाये बचपन,
कभी ना छोङे फिर उसका दामन,
तितलियों जैसे उठते फिरेंगे,
पंछियों से चहकेंगे,
एक ही रंग और एक ही देश,
ना ही हिंसा, ना कोई द्वेष,
जैसे कोई प्यारा मेहमान,
बचपन एक मीठी मुस्कान,
ले आती है यादें ढेर,
करवा लाती है सुलझे हुये दिनों की सैर।
चलो समय का पहिया घुमा दें,
फिर से हम बच्चे बन जायें. ...
©मधुमिता
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