Sunday, 13 November 2016

ऐ सूरज...





ऐ सूरज तुम कहाँ छुपे हो!
क्यों नही मुझको अब तुम
पहले से दिखते हो?
क्यों मुरझा रही सूरत तुम्हारी?
क्या हो गयी हमसे
ख़ता कोई भारी? 
ऊँचे-ऊँचे गगनचुम्बी इमारतें,
मानो बादलों के परे खड़े, 
काले स्याह धुआँ उगलती
लम्बी चिमनियाँ, 
मेरे सुनहरे सूरज तुमको 
मानो नज़र का टीका लगाती,
हर बादल पर मंडराती,
फेफङों को काला रंग जाती,
हर ओर धूल धक्कङ,   
सूखी नदियाँ 
सीनों में ढोते 
बजरी और कंकङ, 
मटमैली सी हरीयाली,
धुआँ फैलाती गाडियाँ,
हर साँस को तंग
संकरी गालियाँ,
पाँव धरने को मचलते
मानव,जानवर,पक्षी दल,
जन जीवन अस्त व्यस्त, 
हर कोई त्रस्त 
किसी अनदेखे,
अनजाने ख़ौफ़ से,
गोला, बारूद, 
तोपें, बन्दूक, 
चीख पुकार,
गुस्से का अंबार,
आडम्बर, 
गर्दी और ग़ुबार, 
हर ओर किरण पात,
विकिर्ण, 
क्या तुमको बना गये हैं जीर्ण?
हर तरफ कांक्रीट का बाज़ार,
धरती को करती बेजान,
बेधङक तार तार,
नीचे मोह माया का जाल,
ऊपर तारों का जंजाल,
जिसमें से अब ना ही झांकता चंदा,
ना नज़र आते, टिमटिमटिमाते,
झिलमिलाते सितारों की झालरें!
अपनी ही प्रौद्योगिकी,
पारिभाषिकी के जाल में 
फंस गया है मानव,
धरती, प्रकृति, जीवन
से खेल रहा है मानव,
तुम भी तो फंसे हुये से
आते हो नज़र,
ग़ुबार में लिपटे,
निष्तेज से,
अपनी मुस्कान खो कर,
बताओ ना मुझे
क्या तुमको भी क्रोध है आता,
क्या ये धुआँ -ग़ुबार 
तुमको है भाता!
ऐ सूरज! सच बताओ,
तुम क्या सोचते होगे,
इन तारों के जंजाल के बीच फंसे!!

©मधुमिता

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