Wednesday, 30 August 2017

यकीन..


कभी आह भरती हूँ,
कभी मुस्कुराती हूँ,
कभी अश्क बह निकलते हैं,
यादें कभी नश्तर चुभोते हैं,
क्यों अकेली हूँ मै इतनी?
एक एक पल क्यों है एक उम्र जितनी?
बैठी हूँ बुत बनकर दरवाज़े पे,
अकेली, निस्तब्ध अंधेरे में,
आतुर हूँ दो लफ़्ज़ तेरे सुनने को,
तेरे आवाज़ की मिसरी घोलने को,
तेरे आने की उम्मीद नही है लेकिन,
आयेगा तू कभी तो, है अजीब सा ये यकीन;
तूने तो चुन ली थी अपनी अलग एक राह,
बदले मे दे गया बेअंत दर्द और आह,
दिल ने मेरे चाहा तुझको,
हर पल पूजा भी तुझको,
पर ना तू आया, ना तेरी परछाई,
शुक्र है दिल के दरवाज़े पर दस्तक देती यादें मगर तेरी आईं,
कौन अब संभालेगा मुझको? कौन खुशियाँ दे जायेगा?
कौन पोंछेगा आँसू? खोई मुस्कान कौन ले आयेगा?
एक बार तो आ ज़रा, बाँहों मे मुझको थाम ले,
यकीन कर लूँ मुहब्बत पर, बेशक फिर तू अपनी राह ले।।
 
©®मधुमिता



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