Monday, 29 August 2016

सुकून 





माँ की गोद में क्या सुकून था!
ना घबराहट, 
ना कोई तङप, 
बस इत्मीनान की नींद, 
नही जहाँ कोई डर
और ना ही कोई फिकर।



माँ की गोद से उतरे
तो स्कूल की फिक्र,
मास्टर जी डाँट
और पिताजी की फटकार,
नम्बरों की चिंता 
प्रशंसा के साथ निंदा,
सब मिलकर एक अजीब सा गुब़ार,
सोचों का विशाल अंबार।



फिर  आगे की शिक्षा,
परीक्षा ही परीक्षा, 
ना भूख, ना प्यास,
बस आगे निकलने की होङ
ऊँचे उङने की आस,
ना चैन की नींद, 
ना इत्मीनान की साँसें, 
हर घङी हम बस बदहवास से भागे।



फिर आया रोज़ी 
रोटी का खेला,
दुनिया का अजब झमेला,
धक्कम-धक्का 
ठेलम - ठेल,
हाथ आये बस
आटा, दाल,
साबुन, तेल ।



साथ ही आ गयी साथी की सवारी,
लो दौङ पङी गृहस्थी की गाङी,   
साङी, कपङा, बच्चे, 
स्कूल, फीस, हस्पताल,
शादी, राशन, इत्यादि, 
कभी मृत्यु तो 
कभी जंचगी की तैयारी,
सुकून तो मानो फिसल गई थी,ज़िन्दगी से सारी।




अधेङावस्था थी और गजब,
बच्चे बङे हो गये थे अब,
अब उनके स्थायित्व की चिंता थी भारी,
फिर उनके रोजगार की चिंता 
शादी और बच्चों की बारी,
चैन कहीं खो गया था,
इत्मीनान भी गुम गया था,
वो माँ की गोद का सुकूं, अब कहाँ था।



समय अब मिट्टी में मिलने का है,
मिट्टी माँ सी समझाती है,
कि ग़म ना करो ऐ इंसां!
मिट्टी में वो सुकुन तो पा लेते हो,
जिस सुकून को तलाशते 
पूरी उम्र गुज़ार जाते हो ।।

©मधुमिता

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