Sunday, 21 August 2016

अंगारे




स्याह अंधेरी रात में 
दीये की लौ का साथ,
कंपकंपाती सी जाङे
के अंधियारे को 
थोङा रौशन कर जाती है,
बंधा जाती है आस
एक अधूरे से वादे
के पूरा होने का।


इन तन्हाइयों में,
खामोशी भी एक
अनोखा संगीत सुनाती है,
लौ की फङफङाहट
कोई वाद्य यंत्र 
बजाती है,
दूर कहीं,  झींगुरों 
ने भी रागिनी छेङी है।


बारिश की बूंदों ने भी
खिङकी से लिपट-लिपट,
मेरी तंद्रा तोङी है,
मेघराज भी गरज -गरज कर
बारबार हैं  डरा जाते ,
उनसे लिपटने की चाहत में,
उनके ना होने का अहसास, 
बेदर्द से, करा जाते हैं ।


सर्द, बेरंग सा कमरा
है, और कुछ धुंधली
सी मटमैली यादें,
गरमाईश देने की
कोशिश करती
एक बेचारी रज़ाई, 
जिसमें सिमट कर भी सिहर उठती हूँ,
जब उनकी यादें नसों में दौङ जायें।


नींद खङी है दरवाज़े पर,
आँखें रस्ता रोके खङीं हैं,
कई रंगीन सपनों की 
जागीर है आँखें, 
कैसे किसी और को 
सौंपें खुद को!
सबके बीच मै बैठी हूँ 
एक धङकता दिल,बेहाल लिए। 
  

वो कोसों दूर हैं
पर लिपटे मेरे तन से हैं,
मन मेरा ये घर है उनका,
साँसों को भी नाम उनके किये,
इस बेरंग सी रात को
उनका ही नाम रंगीन कर जाता है,
उनके मुहब्बत का ही रंग है
लाल से तङपते दिल में।


लाल सी ही जल रही
लकड़ियाँ एक कोने में,
मेरी तरह ही ये भी जल रही,
चुपचाप इस वीरान सी
गुमसुम सी रात में,
अकेले में, कसमसाकर,
भागती धङकनों को थामकर,
इंतज़ार करती आँखें फाङे हुये मै। 



कुछ गुलाबी से अरमान 
कुलांचे मार रहे हैं,
उनसे मिलने को 
हुये जा रहे बावरे,
दिल भी अनर्गल बोले जा रहा
धङक-धङक कर आवारा सा, 
कुछ जज़्बात भी हैं, जो सुलग रहे हैं 
इन सुर्ख अंगारों की मानिंद....

©मधुमिता

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