Thursday, 9 March 2017

वक्त का आईना

काश मै इस वक्त को कैद कर पाती,
हमेशा-हमेशा के लिए!
किसी कैमरे में नही,
शायद उस आईने में?
तुम्हारे अक्स के साथ,
या उससे भी बेहतर,
इस शीशे के मर्तबान में
जो मुझे तुम्हे भूलने ही ना दे,
याद रखने को मजबूर करे
इन आँखों के सामने रह,
बार-बार ललचाये,
इन आँखों की प्यास बढ़ाये।

कुछ इस तरह मेरी ज़ुबान को
तुम्हारा ज़ायका बताये,
बिना मेरे लबों का तुम्हे छुये
या मेरे चेहरे का
तुम्हारे चेहरे के करीब आये,
फिर भी मेरी नज़रों में कैद
तुम्हारी नज़रें,
शीशे की हर दीवार को पिलाकर,
इक दूजे को सहलाती,
गले मिलती,
कुछ मीठे, कुछ नमकीन से ज़ायकों में
डूबते उतराते।

अलग-अलग मुकाम हमारे,
अलग-अलग है मंज़िल,
फिर भी इस कदर पास रखूँ तुम्हे
कि तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू,
इत्र की महक
रह रहकर मदहोश कर जाये मुझे,
हवा भी लेकिन
तुमसे मुझ तक ना आ सके,
फिर भी मेरी ज़ुल्फ़
उँगलियों के बीच तुम्हारे
इतराने लगे,
जुदा से आसमां तले।

चाहे अलग जगह हो,
या अलग ही जहाँ हो,
अलग-अलग सफ़र हो,
अलग कारवाँ हो,
मुहब्बत के धागे से
दिल अपने बंधे हो,
रूह दो आज़ाद
आसमानों में फिरते हों,
कुछ इस कदर मेरे ख़्वाब तामिल हो जायें,
कुछ हक़ीक़त में बदल जायें,
एक दूसरे में समा जायें,
वक्त के आईने में
दोनों यूँ ही कैद हो जायें।।


©मधुमिता

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